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उस्ताद बड़े गुलाम अली खां जन्म अविभाजित भारत में लाहौर (अब पाकिस्तान) के पास स्थित कसूर में दो अप्रैल 1902 को हुआ था. अपनी सुरीली आवाज और अभिनव प्रयोगों के जरिये उन्होंने न सिर्फ अपने समय के श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया, बल्कि आज भी उनके प्रशंसकों की एक बड़ी तादाद मौजूद है.
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बड़े गुलाम अली खां साहब को संगीत विरासत में मिला था. संगीत के गुर उन्होंने अपने पिता अली बख्श खां, चाचा काले खां और दादा शिंदे खां से सीखे. अली बख्श खां कश्मीर के महराजा के दरबारी गायक थे और यह संगीत का कश्मीरी घराना कहा जाता था. बाद में ये लोग पटियाला आ बसे और घराने का नाम पटियाला घराना हो गया. यह भी दिलचस्प है कि खां साहब ने सारंगी वादन से अपने संगीत की शुरुआत की थी.
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बड़े गुलाम अली खां की आवाज को पहचान 1919 में लाहौर के संगीत सम्मेलन में मिली. इसके बाद कलकत्ता और इलाहाबाद में हुए ऐसे ही संगीत आयोजनों ने उन्हें मशहूर कर दिया. बड़े गुलाम अली खां को ठुमरी में उनके अभिनव प्रयोगों के लिए जाना जाता है. ठुमरी को परंपरा के दायरे से बाहर निकालकर उन्होंने इसे एक अलग अंदाज में ढाला. इस नए अंदाज में लोक संगीत की ताजगी और मिठास भी थी.
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फिल्मों से हमेशा दूरी बनाकर रखने वाले उस्ताद गुलाम अली ने के आसिफ निर्देशित ‘मुगले आज़म’ के लिए ‘प्रेम जोगन बनके…’ गीत गाया था. उन्होंने ने इसे ठुमरी अंग की गायकी में अधिक प्रयोग किए जाने वाले राग सोहनी में गाया और यह गाना कालजयी साबित हुआ. इसके लिए उस्ताद ने पच्चीस हजार रुपए फीस ली थी जो कि उस समय के हिसाब से बड़ी रकम हुआ करती थी. उस समय लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी जैसे शीर्ष गायक भी एक गाने के पांच सौ रुपए तक ही लिया करते थे.
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1947 में भारत के बंटवारे के बाद बड़े ग़ुलाम अली खां पाकिस्तान चले गए थे. लेकिन संगीत के इस साधक को वहां का माहौल रास नहीं आया. नतीजतन वे जल्द ही भारत लौट आए. संगीत के क्षेत्र में अपने योगदान के लिए उन्हें कई सम्मान मिले जिनमें 1962 में मिला पद्मभूषण भी शामिल है. 23 अप्रैल, 1968 को हैदराबाद में उनका निधन हो गया.
सत्याग्रह की रिपोर्ट पर आधारित