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आंकड़े बताते हैं कि 1950 के दशक में मतदाता के तौर पर महिलाओं की भागीदारी 38.8 फ़ीसदी थी. 60 के दशक में यह भागीदारी बढ़कर लगभग 60 फ़ीसदी तक पहुंच गई जबकि पुरुषों के मामले में यह आकंड़ा महज चार फीसदी बढ़ा. पिछले कुछ समय के आंकड़ों को देखें तो 2004 में मतदान करने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं से 8.4 प्रतिशत ज़्यादा थी जबकि 2014 में यह आंकड़ा महज़ 1.8 प्रतिशत रह गया. 2014 में अरुणाचल प्रदेश, बिहार, गोवा, मणिपुर, तमिलनाडु, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब और उड़ीसा समेत कुल 16 राज्य ऐसे थे जहां महिलाओं ने पुरुषों से ज़्यादा मतदान किया.
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निचले स्तर पर आरक्षण मिलने के बाद स्थानीय निकायों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और राजनीति में उनकी रुचि बढ़ी है. लेकिन दुखद यह है कि विधानसभा और संसद के चुनावों में अब भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व बेहद कम है. देश की आबादी में 48.1 फ़ीसदी की हिस्सेदारी रखने वाली महिलाओं का मौजूदा लोकसभा में प्रतिनिधित्व 12.1 फ़ीसदी की छोटी सी संख्या पर सिमटा हुआ है.
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भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के अब तक घोषित किए गए उम्मीदवारों की सूचियां देखी जाएं तो आने वाले चुनावों में भी इस अनुपात के बेहतर होने के कोई आसार नहीं दिखते. ये सूचियां बताती हैं कि बड़ी पार्टियों ने महिलाओं को राजनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा बनाने के लिए कोई कोशिश नहीं की है. जबकि सर्वे बताते हैं कि मतदाता चाहते हैं कि उन्हें अधिक महिला प्रत्याशी मिलें.
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दुर्भाग्यपूर्ण है कि मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री जैसे पदों पर पहुंचकर मजबूत नेता के तौर पर सामने आईं महिला नेताओं ने भी महिलाओं को एकजुट करने या उनकी समस्याओं पर अलग से ध्यान देने या उनका नेतृत्व विकसित करने की कोशिश नहीं की. तमाम पार्टियां और पुरुष नेता भी यथास्थिति को बरकरार रखते हुए अपना चुनावी लक्ष्य साधने के लिए महिलाओं को लुभाने की कोशिश करते रहते हैं. फिर चाहे वह साइकिल देने की स्कीम हो, तीन-तलाक हो या उज्जवला योजना हो, सब महिलाओं की सतही मदद देने के प्रयास तक ही सीमित रह जाते हैं.
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भाषण की शुरुआत में प्रियंका गांधी का ‘मेरी बहनो और भाइयो’ का संबोधन और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी द्वारा घोषित प्रत्याशियों की सूची में 41 फ़ीसदी महिलाओं का होना उम्मीद देता है. ऐसी ही एक उम्मीद महिला आरक्षण विधेयक से लगाई जा सकती है जो अगर पारित हो जाए तो नीतियां बनाने वाले गलियारों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो बढ़ेगा ही, नीति निर्धारण में भी उनका असर देखने को मिलेगा. लेकिन यह कब संभव हो सकेगा?
सत्याग्रह की रिपोर्ट पर आधारित