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पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार संजय बारू की बहुचर्चित-विवादित किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ 2014 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आई थी. इस पर बनी फिल्म जब रिलीज हुई है तो 2019 के चुनावों की तैयारी हो रही है. ऐसे में इस पर प्रोपगेंडा फिल्म होने का इल्जाम लगना ही था और यह सौ टका प्रोपगेंडा फिल्म है भी. लेकिन बुराई में अच्छाई देखें तो इस बार इमरजेंसी के पकाऊ कॉन्सेप्ट से इतर समकालीन राजनीति पर फिल्म बनाकर नई तरह का एजेंडा सेट करने की कोशिश की गई है.
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कहानी पर आएं तो फिल्म 2004 से 2014 के बीच मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकारों को अपनी पृष्ठभूमि बनाती है और मनमोहन सिंह की पार्टी नेतृत्व से खींचतान को दिखाती है. ऐसा करते हुए फिल्म जहां एक तरफ गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी को जमकर निशाना बनाती है, वहीं मनमोहन सिंह के साथ सहानुभूति जताते हुए भी उन्हें सबसे कमजोर प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित कर देती है.
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अक्षय खन्ना के रूप में फिल्मकार दर्शकों को संजय बारू का एक मनोरंजक-आक्रामक वर्जन दिखाता है जो आसानी से प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व पर हावी होता दिखता है. इसे गले उतार पाना आसान है क्योंकि लोगों को बारू के व्यक्तित्व का अंदाजा कम ही है लेकिन मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी के हाथों की कठपुतली दिखाने के चक्कर में जरूरत से ज्यादा बेचारगी दे दी गई है, जो बुरी तरह खटकती है.
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अभिनय पर आएं तो मनमोहन सिंह की चाल और आवाज को अनुपम खेर ने कुछ इस तरह से रचा है कि वह जरा फेमिनिन सी लगने लगती है और हंसी छूटने की वजह बन जाती है. नरमी से बोलने के उनके तरीके को जबरन उनके कम आत्मविश्वास से जोड़कर दिखाने की कोशिश किया जाना भी अखरता है.
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एडिटिंग, कैमरा वर्क और फॉरमेट से लगता है कि निर्देशक विजय गुट्टे नेटफ्लिक्स की बेहद पॉपुलर सीरीज ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ से काफी प्रभावित हैं. यह और बात है कि इस सीरीज जैसी ही तेजी और अंदाज अपनाने वाली यह फिल्म उसकी रोचकता का सौवां हिस्सा भी नहीं रच पाती. फिर भी एक फिल्म के तौर पर ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ थोड़ा-थोड़ा मनोरंजन करती रहती है. लेकिन, सच-झूठ के पैमानों पर यह खुद को इतना विश्वसनीय नहीं बना पाती कि इसे अविश्वसनीय सिनेमा कहा जा सके!