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समलैंगिक नायिकाओं को लेकर जिस तरह की इंटेंस फिल्में दुनिया-भर में बनती हैं, ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ वैसी फिल्म नहीं है. यह एक छोटे शहर की अंतर्मुखी लड़की के खुद को समलैंगिक के तौर पर स्वीकार करने और अपनों को उस स्वीकृति में शामिल करने के बारे में है. दूसरी मशहूर लेस्बियन फिल्मों की तरह इसकी नायिका क्रांतिकारी नहीं है, न साहसी है, और न ही आंदोलनकारी है. बल्कि सोनम के आहूजा को चेहरा बनाकर, निर्देशक शैली चोपड़ा धर ने बड़ी ही कुशलता से छोटे शहरों में पितृसत्ता के दबाव में अपनी असली पहचान छिपाए बैठी युवतियों के दमन को रेखांकित किया है.
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फिल्म की एक अलग बात यह भी है कि वह अपनी नायिकाओं के बीच बिना किसी तरह की इंटीमेसी दिखाए, बिना सेक्स का चित्रण किए, एक समलैंगिक प्रेम-कथा को पूरी तरह फैमिली ऑडियन्स के मिज़ाज का बनाकर पेश करती है. हिंदुस्तानी समाज के लिए टैबू एक मुद्दे को यह इस तरह परदे पर रचती है कि सिनेमाघर में बैठा पारंपरिक और रुढ़िवादी दर्शक समलैंगिक मोहब्बत को देखकर न व्यथित हो, न ही घृणा से भरे. यह सिनेमा आपको सबक देता है लेकिन इस तरह से कि आप गुड फील करते हुए अपने घर जाते हैं.
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कलाकारों को अभिनय की कसौटी पर कसें तो ब्रिजेंद्र काला से लेकर सीमा पाहवा, अभिषेक दूहन, मधुमालती कपूर और रेज़िना कैसैंड्रा तक ने अपने छोटे-छोटे किरदारों में बढ़िया काम किया है. राजकुमार राव भी एक बार फिर बगैर नुख्स वाला अभिनय करते हैं. हालांकि वे इस फिल्म के मुख्य किरदार नहीं हैं.
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वहीं, अनिल कपूर पिता की भूमिका में गज़ब के गरिमापूर्ण लगे हैं, और इमोशनल दृश्यों में गज़ब का ही इंटेंस अभिनय करते हैं. इस फिल्म के लिए उन्होंने अपने अंदर के उस दमदार अभिनेता को बाहर निकाला है, जो पिछले कुछ सालों से यदा-कदा ही बाहर नजर आया है.
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सोनम के आहूजा की बात करें तो वे ‘नीरजा’ के स्तर का तो नहीं, लेकिन ईमानदार अभिनय करती हैं. सोनम सीमित रेंज की अभिनेत्री हैं और ऐसे परिपक्व किरदार निभाने का अनुभव भी नहीं रखतीं, इसीलिए कहीं-कहीं उनके सुर अटपटे लगे हैं. लेकिन फिर भी, मुख्यधारा की एक मशहूर अभिनेत्री का समलैंगिक प्रेमिका की भूमिका निभाना छोटी बात नहीं है. उन्हें केवल यह हिम्मत दिखाने भर के लिए अलग से शाबाशी मिलनी चाहिए.