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इस हफ्ते रिलीज हुई ‘उरी’ जब आप देखेंगे, तो लगेगा नहीं कि ये निर्देशक आदित्य धर की पहली फिल्म है. निकट के समय की प्रोपेगेंडा फिल्मों की तुलना में इसका क्राफ्ट उम्दा है और यह एक प्रतिभावान फिल्मकार के आगाज की मुनादी भी करती है. लेकिन अपनी तमाम तकनीकी खूबियों के बावजूद, सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी ‘उरी’ एक सरकारी विज्ञापन फिल्म से ज्यादा नहीं हो पाती.
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फिल्म में राजनेताओं को अहम फैसले लेते हुए बार-बार दिखाया जाता है. और इनके लंबे-लंबे दृश्यों के चलते सेना के जवानों का चेहरा केवल विकी कौशल ही बन पाते हैं. जबकि कोई भी वॉर फिल्म तभी उम्दा बनती है जब वो जंग लड़ने वाले अपने कई सारे सैनिकों को मुख्तलिफ पहचान देकर सीधे दर्शकों के दिल में स्थापित करती है. बॉर्डर और लक्ष्य जैसी कमर्शियल वॉर फिल्में इसीलिए आज भी दर्शकों के लिए यादगार बनी हुई हैं.
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विकी कौशल का अभिनय ‘’उरी’’ में भी उम्दा है और वे मजबूत शरीर वाले मेजर की भूमिका बेहद ईमानदारी से निभाते हैं. आर्मी हीरोज को उग्र राष्ट्रवादी बनाकर स्टीरियोटाइप करने की बॉलीवुड की आदत के बावजूद, वे अपने किरदार को मानवीय बनाकर ही सबसे बड़ी जीत हासिल करते हैं.
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परेश रावल, अजीत डोभाल से प्रेरित भूमिका निभाते हैं और उनका अभिनय काफी सराहनीय है. अभिनेत्रियों में कीर्ति कुल्हारी फिल्म में बेवजह हैं तो यामी गौतम एक काबिल एजेंट बनने के बावजूद ज्यादातर वक्त साइड में खड़े रहने को ही मजबूर रहती हैं.
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कुल मिलाकर ‘उरी’ दर्शकों की उम्मीदों पर पूरी तरह से खरी उतरने वाली फिल्म नहीं है. ‘उरी’ के निराश करने की सबसे बड़ी वजह पटकथा में सेना तथा उसके जवानों से ज्यादा तवज्जो राजनीति को देना है. अगर ”उरी’’ का फोकस सिर्फ सेना का पराक्रम दिखाना होता – बिना किसी राजनीतिक शो-बाजी के – तो इस फिल्म की दर्शनीयता में खासा इजाफा हो सकता था.